Thursday, 2 October 2008

डर की इस दीवार के बाहर ....

चलो ये भूल जाओ
के मुझे तुम ढूंढ पाओगे
किसी वादी
या सहरा में ........................
के मैंने सौ नए रस्ते बना रक्खे हैं
उस जानिब
के मैंने मुट्ठियों में थाम रक्खा है
लगामों को
किसी भी दम
सफर को मैं निकल जाऊंगा सदियों तक,
के बोलो
आओगे !
मैं जा रहा हूँ एक कोहरे में
जहाँ कुछ भी नहीं dikhta /
के हाँ,
ये डर की इस दीवार के बाहर
का मंजर है
और मैंने
लौटने के वास्ते दर्रे नहीं ढूंढें
ke मैंने एक ऊँची वस्ल पे नज़रें नहीं रोकीं
के हमने ठोंक रखीं हैं
हजारों कील पे नजरें
के सदियाँ झूलती हैं
इन लकीरों पर खलाओं में
के हाँ,
ये डर की इस दीवार के बाहर
अंधेरे में
बहुत उलटी सलीबें हैं
लटकती झूलती देखो,
के इनपे ठोंक कर ख़ुद को अगर तुम आज्मोगे
तो मुमकिन है के मिल जायें
चलो ये भूल जाओ के मुझे तुम ढूंढ पाओगे
किसी वादी या सहरा में।