Thursday, 16 July 2009

डर लगता है

जब रेल में चढ़ना होता है , डर लगता है
जब खेल में लड़ना होता है , डर लगता है
जब यारों से तू तू मैं मैं हो जाती है
भीगी बच्ची फुटपाथ पे जब सो जाती है
जब एअरपोर्ट पे तीस रुपए के पानी से
उनके कुत्तों की प्यास बुझाई जाती है
जब परदे पर जूरी के आगे बर्लिन में
उस इक बच्चे पे फ़िल्म दिखाई जाती है
जब सीन सराहा जाए बंद थिएटर में
जब क्रेडिट पढ़ना होता है , डर लगता है
नंगे पाँव चलने वालों की बस्ती में
जब शीशे के baazaar sajaye jate हैं
जब मन्दिर मस्जिद gurudware के साथ साथ
ऑफिस केबिन में शीश नवाए जाते हैं
जब दाल भात भी थाली में कम जाता है
जब भीतर का सारा उछाल थम जाता है jab
shehjaade गद्दी पे बिठाये जाते हैं
जब भूख प्यास फर्जी बतलाये जाते हैं
जब की लड़ना है लटक रहे सब तालों से
टाटा बिरला और यम् कुबेर दिक्पालों से
जब शोर शराबा भीतर से हुंकार करे
जब असलाहों में दस्ताने बारूद भरें
जब भरी सभा में घोषित हो सम्मान कोई
जब अपना मुखिया बन जाए अनजान कोई
जब कदम ताल पे संगीनें उद्घोष करें
जब मरनेवालों पे जनता अफ़सोस करे
जब आम बजट से गुड गायब हो जाता है
अपने बूते से बाहर सब हो जाता है
जब सरकारी दफ्टर सब दल्ले हो जायें
जब अस्पताल पैसे के गल्ले हो जायें
जब इस्कूलों में बाप की दौलत पढ़ती हो
जब घर बिन बतलाये धाये जाते हैं
जब डर पाले और बढाये जाते हैं
जब पलते पलते और पालतू हो जायें
जब अपनी नजरों में ही फालतू हो जायें
जब सत्य ahinsaa और भरम के नारों से
जब ladnewalon को नकली hathiyaro से
lais kara के border पे thele जायें
जब cash के dum पे खेल सभी खेले जायें.......

1 comment:

DHARMENDRA MANNU said...

जब मन्दिर मस्जिद gurudware के साथ साथ
ऑफिस केबिन में शीश नवाए जाते हैं
जब दाल भात भी थाली में कम जाता है
जब भीतर का सारा उछाल थम जाता है jab
shehjaade गद्दी पे बिठाये जाते हैं
जब भूख प्यास फर्जी बतलाये जाते हैं


mujhe dar bilkul nahi laga... balki aapki kavita ko padh kar dar nikal gaya...