गूंगेपन से हुंकारों तक
मछुआरों से ऐयारों तक
ये शब्द कहाँ तक जाते हैं
ये सदियों की गहराई में
घुलते घुलते बदरंग जहन
थोड़ा सा नया समझौता है,
शब्दों की हिरासत जारी है
शब्दों पे खुला करते हैं कई
गुमनाम जगह के सब सांचे
शब्दों की मरम्मत के जरिये
हमने दुनिया को ढाला है
हमने अपने एहसास कई
शब्दों पे ख़रीदे बेचे हैं....
देखो बातों ही बातों में
हम दूर कहाँ तक आ निकले
ये तीन पाँच
ये sine cos
जाने कैसे बन जाते हैं
चलते चलते दो शख्श कभी
जब हौले से छुप जाते हैं
ये शब्द कहाँ तक जाते हैं
हम दोनों में जो एक है वो
हमने शब्दों में ढूँढा है
हम दोनों में जो नेक है वो
हमने शब्दों में ढूँढा है
इक चोर है जो रहता है यहीं
शब्दों की गली या नुक्कड़ पे
एक चीज कोई होती रहती है
शब्द जहाँ पर रहते हैं
सबकी साझा बोली की तरह
हँसते गाते चलते फिरते
हम एक अधूरी खोज लिए
निकले हैं न जाने किस जानिब
Sunday, 15 November 2009
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2 comments:
lajabab sir
bade dino ke baad ... achha laga.
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