Thursday, 19 November 2009

शब्द

शब्दों के सुनहरे सांचों में
सब तर्क कुतर्क
ढले होंगे
हमने ख़ुद को सहलाने में
शब्दों से
तस्सल्ली ली होगी
हमने
ख़ुद को उलझाया है
शब्दों से फ़साने बुन बुन कर...

जो तुम समझो
वो हम समझें,
तो शब्द सही हो जाते हैं

शब्दों की मुकम्मल दुनियाँ में
इक और कोई
रहता है कहीं
जो मुझसे तुझमें जाता है
और तुमसे मुझमें आता है

इक चीज़ कोई
रहती है जिसे
हम देख नहीं पाते हैं कभी...
इक रोज़ कहीं तनहाई में
हम बूझ गए
तो बूझ गए.

वो चीज़
वो छोटी सी उघरण
इक शब्द का ख़ाली aura है
शब्दों की हकीक़त इतनी है
के हम तुम दोनों
सहमत हैं
इक शब्द उबलता है जब भी
इक अक्स उभरता है पहले
इक चीख कोई
बस ठीक वहीँ
पैरों पे खड़ी हो जाती है

इक शब्द का ख़ाली aura फिर
उस चीख से
भर भर जाता है

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