Friday, 30 January 2009

वक्त

आज कल मेरे शहर ने जो बना रक्खा है मुझको,

दिख रहा होगा तुम्हें

पर वो

मेरा चेहरा नहीं है ,

मैं यहाँ उस वक्त से हूँ

जब यहाँ कोई नहीं था,

एक हैरत थी जो बढती जा रही थी दिन ब दिन

एक फुर्सत थी जो घटती आ रही थी हर तरफ़,

मेरेआगे ही तमाशे नस्ल के पैदा हुए,

मेरी आंखों में हजारों तीर हैं उस जंग के

जो लड़ी सबने मगर कोई नहीं जिन्दा रहा,

मैं यहाँ उस वक्त से हूँ

जब ज़मीं सबकी रही

मेरे आगे सैकड़ों फसलें उगीं और कट गयीं

मेरे आगे सैकड़ों नस्लें उगीं और बंट गयीं

मैंने अपनी उम्र का वो दौर देखा है यहाँ

जिसमें जर्रे से उठा है ये शहर

और एक दिन

आसमान छू के गिरा है

पत्थरों के फर्श पे

1 comment:

Prem Shukla said...

बढ़िया है दोस्त, लाज़वाब...