Monday 14 November 2016

2008 में मेरी केरल यात्रा की डायरी के पन्नों से . . .

2008 में मेरी केरल यात्रा की डायरी के पन्नों से . . .
"क्यूँकि इतना तो पक्का है कि ये सिर्फ कासरगोड़ से त्रिवेन्द्रम तक का सफर नहीं है. ये सिर्फ NH-17 से NH-47 तक का रास्ता नहीं है और न ये केरल के समंदर के किनारे बिताए हुए दिन हैं. न तो ये एकांत में मिल रहे नए लोगों की गिनती है, ना ही नए कई चेहरों को पेन और कागज पर समेटने की कोशिश. लगातार चलते रहने की ऊब भी नहीं है और ना ही लगातार चलते रहने के लिए जोश को बनाए रखने का जुगाड़ ! फिर क्या है ये ! इतना तो महसूस कर सकता हूँ के वो थकान भी नहीं है जो 700 किलोमीटर चलने के बाद होनी चाहिए. मैंने जानबूझकर इसे जारी किए रखा है. बिना एक भी दिन रुके हुए. इतना कह सकता हूँ के उम्मीद का एक सिरा हमेशा मेरे एक हाथ में रहा है, जो शायद मुझे लगातार खींचता रहा है या शायद मैं जिसे लगातार धकेलता रहा हूँ आगे की तरफ़ . . . "

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