Tuesday, 10 February 2009
तेरे बदन पे तिल
तो हमने कहा
के सुनो ......
कतार में रहो ,
अच्छे भले हो आदमी
आँखें खुली रखो ,
यूँ खामख्वाह के मत किसी खुमार में रहो ...............
तेरे बदन पे तिल कहाँ हैं
जानते हैं हम
अब तुम
हमारे काले कारोबार में रहो
सारे गुनाह खिल के तो गुलाब हो गए
अब
आज से
काँटों के इख्तियार में रहो
Sunday, 8 February 2009
धूम मचा कर चले गए
काफी देर तक्क़ल्लुफ़ में वो
चुप बैठे
पर आख़िर में
सन्नाटे से बाहर आए
धूम मचा कर चले गए/
चिट्ठी विट्ठी लिखते रहना
इतना ही बोला उनसे
दीवानों को
क्या सूझी
वो सब लौटा कर चले गए।
Saturday, 7 February 2009
धूम मचा कर चले गए
पहले तो सारा अफसाना
बतलाने बैठे
वो फिर
बात जबां तक आते आते
बात बना कर चले गए।
ऐसे चाँद सवालों पर वो
आँख नचा कर चले गए
चुप थे
फिर भी अनजाने में
शोर मचा कर चले गए
अंगडाई से पहले उनका
थोड़ा सा इठला लेना ,
उनको क्या मालूम
कहाँ वो
आग लगा कर चले गए।
सीधे साधे सब लम्हों को
वो
उलझा कर चले गए
आए तो कंधा देने पर जाने क्या मस्ती सूझी,
ढोल नगाडे लेकर बैठे
हंस कर गाकर चले गए
पहले थोडी आँख तरेरी
फिर झगडे......
मुस्काए फिर
फिर थोड़ा हौले से चौंके
फिर घबरा कर चले गए
Friday, 6 February 2009
के जितना ढूंढते हो तुम
के जितना ढूँढते हो तुम
उतना गुम नहीं हूँ मैं
बस कुछ नए हिस्सों में थोड़ा
बंट गया हूँ अब
अब भी रखता हूँ
नए वादे हथेली पे
अब भी नेजे पे सवालों के संभालता हूँ
अब ही तनहा चाँदनी में
खूब जलता हूँ
रोज जब तुम दस सवालों को उठाते हो
रोज मैं कुछ ख्वाब नन्हें
ढूंढ लाता हूँ
तुम जिन्हें मुश्किल बता कर रूठ जाते हो
मैं सौ दफा उन मुश्किलों में
सर उठाता हूँ
यहीं अक्सर
कहीं कुछ बीनता चुनता हुआ
देखो
यहीं मिल जाऊंगा मैं
जिंदगी बुनता हुआ देखो
जरा सा गौर से देखो
उफक के पास ही हूँ मैं
के जितना ढूंढते हो तुम
उतना गुम नहीं हूँ मैं
Thursday, 5 February 2009
Wednesday, 4 February 2009
अधफटे बम
पसरे हुए हैं हम
किसी उबाल की तरह ,
नए सवाल,
उठ गए थे ....
बीच बहस में
जिनका कि
लिस्ट में कहीं पे ज़िक्र नहीं था/
गणित के ऐसे खेल
जिनका कोई हल नहीं
ऐसे अजीब मेल
जिनका कोई कल नहीं
जैसे कि
सामने हों
तेरे घर की चौखटें
और रास्तों में
बम पड़े हुए हों अधफटे ;
जैसे कि
चीख कर उठें हों
एक साथ फिर
हम गिर पड़े हों
एक
निहत्थों की भीड़ में ,
पसरे हुए हों हम
किसी उबाल की तरह ....
Sunday, 1 February 2009
बीच नदी में साँस नहीं छोड़ा करते
अफसानों में
रौशन था मैं
चम-चम , चम -चम
एक वजह थी
दाँव लगा कर हम बैठे थे
एक वजह
मैं पानी को घोल रहा था
उन सब वजहों की रंगीनी गुम हो जाए
इस से पहले
मसलों को सुलझाना होगा
वो शफ्फाक अँधेरा तारी हो जाए
इस से पहले डॉट लगाना है अम्बर पे;
साँस उखड जाने से पहले खुल जाओ .....
दम है,
शायद
ये घबरा कर घुट जाए
अब भी सारे काम वहीँ हैं जस के तस
अब भी अपने हथियारों पे जीना है
अब भी टकराकर जाना है लहरों से
बीच नदी में साँस नहीं छोड़ा करते
थक कर अपनी राह नहीं मोड़ा करते
गर
जिन्दा
उस पार नदी के जाना है ..............