फर्श पर बिछी हुई है छत मकान की
पसरे हुए हैं हम
किसी उबाल की तरह ,
नए सवाल,
उठ गए थे ....
बीच बहस में
जिनका कि
लिस्ट में कहीं पे ज़िक्र नहीं था/
गणित के ऐसे खेल
जिनका कोई हल नहीं
ऐसे अजीब मेल
जिनका कोई कल नहीं
जैसे कि
सामने हों
तेरे घर की चौखटें
और रास्तों में
बम पड़े हुए हों अधफटे ;
जैसे कि
चीख कर उठें हों
एक साथ फिर
हम गिर पड़े हों
एक
निहत्थों की भीड़ में ,
पसरे हुए हों हम
किसी उबाल की तरह ....
Wednesday, 4 February 2009
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