Thursday, 25 September 2008

खोखली बातों को भरने का मजा देखें

क्यूँ नहीं तुम मान जाती हो
मेरी सब खोखली बातें
के जब तक
हम सफर में हैं
कोई तो राह चलनी है
तुम्हारे पास भी तकलीफ के काफ़ी बहाने हैं
जिन्हें तुम उँगलियों पर भी
गिना देती हो गुस्से में,
और जिनको
चुटकियों पर मैं बजाता हूँ बड़े मन से/
के अब इन
रोज़ के झगडों से हम
बस खेलते भर हैं
सफर ये रुक नहीं सकता है
इन छोटी दलीलों से
तुम्हें भी इल्म है इसका
मुझे भी जानकारी है .....
सफर में साथ हैं हम तुम
तो इतना तो यकीं भी है
के सूरज
ढल नहीं जायेगा
जल बुझ कर के कल परसों
जिसे अब हार कहते हैं
उसे तब जीत कह देंगे
के कुछ भी
तय नहीं है
अब तलक भी दरमियान अपने
किसे क्या नाम देना है
किसे क्या नाम देना है
के आओ
खोखली बातों को भरने का मजा देखें
के आओ
अपनी मर्ज़ी से गुजरने का मजा देखें

जो अंत तक परदे पे ठहरा हो

पहले भागने वाले झट से लापता हो गए
किसी बस ट्रेन या ऑटो या पैदल
जिस तरह से भी.......................
बहुत ज्यादा जलालत लोग थे कुछ
सह नहीं पाए
वो कुछ बेहतर तमाशे देखने की जिद में हैं शायद
कोई ऐसा करिश्मा जो कभी सदियों में मुमकिन हो
या शायद वो भी नामुमकिन,
जिन्हें शर्मो हया में बंद रखना था कुंवारापन
वो सब झेंप कर थोड़ा
हुए रुखसत वहाँ पर से
..................वहाँ पर से
जहाँ पर जंग जारी थी उनके पीछे
मैं उस बेशर्म बे गैरत की बातें करना चाहूँगा
जिसे कूचा गया और थूर कर फोड़ा गया पहले
अभी दो चार मिनटों में तमाशा खुलने वाला है
हमारे लंड पे बैठा हुआ मोटा सा कनगोजर
के समझो डेढ़ फुट लंबा
बहुत ही लिजलिजा चिकना......................
डर के वो लम्हे बहुत कुछ होंगे ऐसे ही
के जिन लम्हों में उनके हौसले टूटे या ना टूटे
ये उनका पर्सनल मुद्दा है छोडो ये कहानी तुम
के आख़िर तक टिके रहना भी इक अच्छी कहानी है
बहुत अच्छा फ़साना है कभी सुनने सुनाने को
मगर वो ही कहे जो अंत तक परदे पे ठहरा हो

Wednesday, 24 September 2008

hausala

कभी चलते हुए झुक कर उठा लूँगा समंदर को
किसी सुनसान बंजर में बिछा दूँगा कोई दरिया
और ऐसे ख्वाब कितने आ रहे हैं आज कल मुझको
तुम्हें कैसे बताऊँ
इन दिनों क्या बेकरारी है ...................
कभी जो लेट जाता हूँ अगर बिस्तर पे गलती से
तो मेरी आँख में कोई सवेरा बैठ जाता है
के पलकों पे उजाला आज कल कुछ कम नहीं होता
के शायद नींद कोई मिलावट हो गई होगी
तुम्हें कैसे बताऊँ दिन के मानी क्या हुए मेरे
तुम्हें कैसे बताऊँ किस गली से लौटता हूँ मैं
के मुझको सब बहुत मुमकिन सा लगता है मेरे भीतर
के मुझको सब बहुत मुमकिन सा लगता है मेरे भीतर।

उस तरफ़ आजाद हूँ

मेरी पेशी हो रही है
अब भी मुझको रोक लो
मुझसे सब कुछ साफ़ कहने की गुजारिश मत करो
मैं सुरीली नज़्म का छूटा हुआ इक लफ्ज़ हूँ
मैं कहूँगा, तो कहूँगा जोर से हर बात को
और भी हैं रास्तों में होश की परछाइयां
और इक दुनिया है मेरी
मैं जहाँ आजाद हूँ
और भी मेयार हैं बदले हुए मेरे कई
और भी कुछ ख्वाब हैं सुनसान में फैले हुए
क्या जरूरी है के हर इक चीज़ से पर्दा उठे
क्या जरूरी है के सब कुछ ठीक हो उस पार भी
मैं खुला तो साथ में खुल जायेंगे पत्ते कई
मैं खुला तो ज़िन्दगी खुल जायेगी हर छोर से
मैं सुरीली नज़्म को पढ़ दूँगा हर इक और से
इस तरफ़ बुलबुल हूँ मैं,
पर उस तरफ़ सैयाद हूँ
इस तरफ़ पेशी है मेरी ,
उस तरफ़ आजाद हूँ।

हमारा भी भरोसा

हमारा भी भरोसा कीजिये
हम सच बताते हैं
जहाँ की बात उट्ठी है
वहाँ जाते हैं हम अक्सर,
गुजरते हैं बहुत फुर्सत से उन गलियों से कूचों से .....
बहुत तहजीब तो शायद नहीं है
हाँ मगर फिर भी .............
अब
इतनी भी नहीं नफरत
के क़त्लऐ आम हो ,
हाँ ठीक है....... के सर मिले हैं कई ठिकानों पे
और कई ठिकानों पर मिले हैं पाँव के जूते
मगर अब वो नहीं होंगे जो रहते थे वहाँ पहले
ना उनकी आत्मा होगी ना उनके जिस्म के टुकड़े
किसी गुमनाम फाइल में दबी हैं अस्थियाँ उनकी
हमारे पास
बस कुछ आंकड़े हैं कहने सुनने को
वहीँ से आए हैं हम
भाग कर भटके हुए .........
ये सब किस्से हमारी आँख के आगे हुए तो क्या
ये सब किस्से हुए
कहते हैं सुनते हैं सुनते हैं
हमारा भी भरोसा कीजिये हम सच बताते हैं।

थोड़ा मशविरा कर लें

अभी तो फिर सजानी हैं किसी सैलाब की मौजें
अभी तो आसमानी रंग के परचम बनाने हैं
अभी तो आजमानी हैं हजारों ख्वाहिशें ऐसी
के जिनसे लौटने की कोई गुंजाईश नहीं होती
के पहले बैठ जायें हम जरा सा मशविरा कर लें
के किन मुद्दों पे हमको मोर्चा आगे बढ़ाना है
कहाँ तक दूर जाना है हमें इस रहे अव्वल पे
कहाँ पर झेंप जायेंगी हमारी सब्ज़ उम्मीदें
कहाँ पर जर्द हो जाएँगी साड़ी वादियाँ इक दिन
कहाँ पर तोड़ना होगा किसी चट्टान को
और फिर
कहाँ पर जोड़नी होगी किसी एहसास पे दुनिया
हमें सब सोचना होगा निकलने से बहुत पहले
के पहले बैठ जायें हम जरा सा मशविरा कर लें.

थोड़ा मशविरा कर लें

अभी तो फिर सजनी हैं किसी सैलाब की मौजें
अभी तो आसमानी रंग के परचम बनाने हैं
अभी तो आजमानी हैं हजारों ख्वाहिशें ऐसी
के जिनसे लौटने की कोई गुंजाईश नहीं होती
के पहले बैठ जायें हम जरा सा मशविरा कर लें
के किन मुद्दों पे हमको मोर्चा आगे बढ़ाना है
कहाँ तक दूर जाना है हमें इस रहे अव्वल पे
कहाँ पर झेंप जायेंगी हमारी सब्ज़ उम्मीदें
कहाँ पर जर्द हो जाएँगी साड़ी वादियाँ इक दिन
कहाँ पर तोड़ना होगा किसी चट्टान को
और फिर
कहाँ पर जोड़नी होगी किसी एहसास पे दुनिया
हमें सब सोचना होगा निकलने से बहुत पहले
के पहले बैठ जायें हम जरा सा मशविरा कर लें.

Monday, 22 September 2008

painting for me.......

What I illustrate in my paintings is of less importance than how I try to figure it out from the given surroundings that we live in and the society is the only place you may say a barrier between thought and process.
The indifference between nature of a being and menifestation of goodness is a point where the whole society is standing on a rock. The unshakable, well knitted, carefully designed slap on our cheeks. Ah........what a slap ! F*** them all, all those gaps we have between innocence and mastery. For me, my work is nothing but a cross section of these two worlds.
Untill you throw yourself out on the barren land, you can't imagine what hunger means. And that hunger is the origine of every calculation I scribble on my canvas.