अभी तो फिर सजनी हैं किसी सैलाब की मौजें
अभी तो आसमानी रंग के परचम बनाने हैं
अभी तो आजमानी हैं हजारों ख्वाहिशें ऐसी
के जिनसे लौटने की कोई गुंजाईश नहीं होती
के पहले बैठ जायें हम जरा सा मशविरा कर लें
के किन मुद्दों पे हमको मोर्चा आगे बढ़ाना है
कहाँ तक दूर जाना है हमें इस रहे अव्वल पे
कहाँ पर झेंप जायेंगी हमारी सब्ज़ उम्मीदें
कहाँ पर जर्द हो जाएँगी साड़ी वादियाँ इक दिन
कहाँ पर तोड़ना होगा किसी चट्टान को
और फिर
कहाँ पर जोड़नी होगी किसी एहसास पे दुनिया
हमें सब सोचना होगा निकलने से बहुत पहले
के पहले बैठ जायें हम जरा सा मशविरा कर लें.
Wednesday, 24 September 2008
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