कभी चलते हुए झुक कर उठा लूँगा समंदर को
किसी सुनसान बंजर में बिछा दूँगा कोई दरिया
और ऐसे ख्वाब कितने आ रहे हैं आज कल मुझको
तुम्हें कैसे बताऊँ
इन दिनों क्या बेकरारी है ...................
कभी जो लेट जाता हूँ अगर बिस्तर पे गलती से
तो मेरी आँख में कोई सवेरा बैठ जाता है
के पलकों पे उजाला आज कल कुछ कम नहीं होता
के शायद नींद कोई मिलावट हो गई होगी
तुम्हें कैसे बताऊँ दिन के मानी क्या हुए मेरे
तुम्हें कैसे बताऊँ किस गली से लौटता हूँ मैं
के मुझको सब बहुत मुमकिन सा लगता है मेरे भीतर
के मुझको सब बहुत मुमकिन सा लगता है मेरे भीतर।
Wednesday, 24 September 2008
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