Thursday, 19 November 2009

शब्द

शब्दों के सुनहरे सांचों में
सब तर्क कुतर्क
ढले होंगे
हमने ख़ुद को सहलाने में
शब्दों से
तस्सल्ली ली होगी
हमने
ख़ुद को उलझाया है
शब्दों से फ़साने बुन बुन कर...

जो तुम समझो
वो हम समझें,
तो शब्द सही हो जाते हैं

शब्दों की मुकम्मल दुनियाँ में
इक और कोई
रहता है कहीं
जो मुझसे तुझमें जाता है
और तुमसे मुझमें आता है

इक चीज़ कोई
रहती है जिसे
हम देख नहीं पाते हैं कभी...
इक रोज़ कहीं तनहाई में
हम बूझ गए
तो बूझ गए.

वो चीज़
वो छोटी सी उघरण
इक शब्द का ख़ाली aura है
शब्दों की हकीक़त इतनी है
के हम तुम दोनों
सहमत हैं
इक शब्द उबलता है जब भी
इक अक्स उभरता है पहले
इक चीख कोई
बस ठीक वहीँ
पैरों पे खड़ी हो जाती है

इक शब्द का ख़ाली aura फिर
उस चीख से
भर भर जाता है

Sunday, 15 November 2009

ये सब ढाँचे हिल जायेंगे

वो रात जो हम पे भारी है
उस रात की ये तैयारी है
दम साध के हम बैठे हैं मगर...
दम साध के बैठे हैं हम भी ।

इक रक्स अभी होते होते
इस वक्त का मतलब बो देगा
ये ज़ोर ज़बर के हर किस्से
इक रोज़ तो मानी खो देंगे
इक रोज़ तो दुनिया बदलेगी
मेरे जीतेजी सब होगा......
मेरी आंखों के आस पास .

ऐसा भी नहीं है के कोई
रफ़्तार अलग सी होती है
जब दौर बदल जाते हैं कहीं
चुटकी इक साथ बजाने पर

ऐसा भी नहीं है चुपके से
हम बुद्ध कहीं पर हो जायें
ऐसा भी नहीं है
सन्नाटा
कुछ और नहीं गहराएगा
ऐसा भी नहीं है बिन बोले
अल्फाज़ कभी खुशबू देंगे
ऐसा भी नहीं चरनेवाले
कुछ बीज कहीं पर बो देंगे ...

इक चीज पे ज़ोर लगाने से
ये सब ढाँचे हिल जायेंगे
कुछ और बढाओ रक्स अभी
कुछ और कुरेदो धरती को
वो रात जो हम पे भारी है
उस रात की ये तैयारी है .

ये शब्द कहाँ तक जाते हैं

गूंगेपन से हुंकारों तक
मछुआरों से ऐयारों तक
ये शब्द कहाँ तक जाते हैं

ये सदियों की गहराई में
घुलते घुलते बदरंग जहन
थोड़ा सा नया समझौता है,
शब्दों की हिरासत जारी है
शब्दों पे खुला करते हैं कई
गुमनाम जगह के सब सांचे
शब्दों की मरम्मत के जरिये
हमने दुनिया को ढाला है
हमने अपने एहसास कई
शब्दों पे ख़रीदे बेचे हैं....

देखो बातों ही बातों में
हम दूर कहाँ तक आ निकले
ये तीन पाँच
ये sine cos
जाने कैसे बन जाते हैं
चलते चलते दो शख्श कभी
जब हौले से छुप जाते हैं
ये शब्द कहाँ तक जाते हैं

हम दोनों में जो एक है वो
हमने शब्दों में ढूँढा है
हम दोनों में जो नेक है वो
हमने शब्दों में ढूँढा है
इक चोर है जो रहता है यहीं
शब्दों की गली या नुक्कड़ पे
एक चीज कोई होती रहती है
शब्द जहाँ पर रहते हैं
सबकी साझा बोली की तरह
हँसते गाते चलते फिरते
हम एक अधूरी खोज लिए
निकले हैं न जाने किस जानिब

Friday, 17 July 2009

वो कहानी
वो अफ़साने
किरदार वो
वक्त की गर्म शाही सियाही तले
अब भी जिंदा लहू से चमक्तें हैं जो
उनकी सब कोशिशों का सिला है ये लौ
इसकी मद्धम लगन
इसकी पुरजोर कोशिश सुलगते हुए
इतनी रौशन के
तुमसे और हमसे कई
काढ़ लाते हैं सिस्टम के अंधे कुएं से जरा हौसला....
के ये हौसला
उन दीवानों ने तोहफे में
भेजा हमें
रौशनी के लिए जो कहीं खोह में
जल गए लौ की मानिंद अपनी जगह
वो जगह अब भी jyaada ghana डर लिए
ghooma करता है झूठे कई सर लिए
जिनको waajib batlane के waaste
पहले khwabon के guchchhe uchhale गए
phoonk कर gaaon से सब nikale गए
जो jahan fit हुए jhat से dale गए
कुछ to ऊंचे bike boliyon की तरह
beringon में ghise goliyon की तरह
sabko peesa गया जिस तरह ये pise
rail की सब patariyaan बनी हर तरफ़
jinke hathon और hathon के chhale लिए
jinke bachche wahin मोड़ per सो गए
हार कर नींद से बिन niwale लिए
ये सड़क जिसकी taamir में ungliyaan
pattharon की तरह kooch डाली गयीं
ये patariyaan जो dam saadh कर थाम lein
rajdhani की bebaak raftaar को
इन patariyon से wabasta घर lut गए
भूख jinke daron पे rambhati रही
और tarakki की reil आती जाती रही
वो diwane जो bazaar में बिन bike
रौशनी के लिए chhatpatate रहे
उनकी
सब कोशिशों का सिला है ये लौ


Thursday, 16 July 2009

डर लगता है

जब रेल में चढ़ना होता है , डर लगता है
जब खेल में लड़ना होता है , डर लगता है
जब यारों से तू तू मैं मैं हो जाती है
भीगी बच्ची फुटपाथ पे जब सो जाती है
जब एअरपोर्ट पे तीस रुपए के पानी से
उनके कुत्तों की प्यास बुझाई जाती है
जब परदे पर जूरी के आगे बर्लिन में
उस इक बच्चे पे फ़िल्म दिखाई जाती है
जब सीन सराहा जाए बंद थिएटर में
जब क्रेडिट पढ़ना होता है , डर लगता है
नंगे पाँव चलने वालों की बस्ती में
जब शीशे के baazaar sajaye jate हैं
जब मन्दिर मस्जिद gurudware के साथ साथ
ऑफिस केबिन में शीश नवाए जाते हैं
जब दाल भात भी थाली में कम जाता है
जब भीतर का सारा उछाल थम जाता है jab
shehjaade गद्दी पे बिठाये जाते हैं
जब भूख प्यास फर्जी बतलाये जाते हैं
जब की लड़ना है लटक रहे सब तालों से
टाटा बिरला और यम् कुबेर दिक्पालों से
जब शोर शराबा भीतर से हुंकार करे
जब असलाहों में दस्ताने बारूद भरें
जब भरी सभा में घोषित हो सम्मान कोई
जब अपना मुखिया बन जाए अनजान कोई
जब कदम ताल पे संगीनें उद्घोष करें
जब मरनेवालों पे जनता अफ़सोस करे
जब आम बजट से गुड गायब हो जाता है
अपने बूते से बाहर सब हो जाता है
जब सरकारी दफ्टर सब दल्ले हो जायें
जब अस्पताल पैसे के गल्ले हो जायें
जब इस्कूलों में बाप की दौलत पढ़ती हो
जब घर बिन बतलाये धाये जाते हैं
जब डर पाले और बढाये जाते हैं
जब पलते पलते और पालतू हो जायें
जब अपनी नजरों में ही फालतू हो जायें
जब सत्य ahinsaa और भरम के नारों से
जब ladnewalon को नकली hathiyaro से
lais kara के border पे thele जायें
जब cash के dum पे खेल सभी खेले जायें.......

Saturday, 13 June 2009

धोखा

बहुत मासूमियत से
अपनी बातों से मुक़र जाना
कोई सीखे
तो फ़िर तुमसे,
मेरे अल्लाह मेरे मौला .
कहा था
ये जमीं ,
बेहतर बनाऊंगा मैं जन्नत से .....
बिगड़ बैठी
तो कहते हो
कि मेरा बस नहीं चलता

Saturday, 16 May 2009

सन्नाटे का घूंघट खोलो

जब भी निकला
टक्कर लेने
मैं
बीच सड़क पर खौफ से लड़ कर
चीर के भीड़ का घेरा.......
मेरे भीतर की चीख को सुन के
दूर गगन पे
काँप उठा चन्दा सूरज का डेरा........
सतरंगी सपनो से जागो
हाथों से हाथों को जोडो
आंखों से अंगारे उगलो
मुक्के से दीवारें तोड़ो ........................................
........................................................................
ये आसमान के इर्द गिर्द
ये चाँद सितारों के
आजू बाजू
जलते बुझते जुगनू.........
ये चंद लोग
जो रोज़ फलक पर सुलगाते हैं फ़िर से एक सवेरा.....................
.......................................................................................
अंधियारों में आकर देखो
थोड़ा सा थर्रा कर देखो
बोलो बोलो भाई
जोर से बोलो
सन्नाटे का घूंघट खोलो ...................................

Monday, 27 April 2009

ghazal

कोई तो मुजरिम बताया जाएगा
फैसला जब भी सुनाया जाएगा

या तो अम्बर को छुपा लेंगे कहीं
या तो पत्थर को मनाया जाएगा

दीवार को गिरने की आदत है मगर
फिर से इंटों को सजाया जाएगा

अबके सीखेंगे सँभालने का हुनर
फिर मुक़द्दर आजमाया जाएगा

गर हुआ पैबंद बिस्तर में कही
ख्वाब को पहले बिछाया जाएगा

ghazal

ना जाने क्यूँ हुआ करता है अक्सर वक्त थोड़ा सा
अभी तो आसमां में एक दरिया भी बनाते हम

अब क्या सुनें तेरी के सहरा में नहीं कुछ भी
अगर अपनी गरज होती समंदर ढूँढ लाते हम

तुम्हारे ख़त में इतने फासलों का ज़िक्र था वरना
अगर थोडी जगह होती तो शायद मान जाते हम

बहुत जायज है तेरा ज़िक्र महफिल में उठा देना
अगर सबसे छुपाते अब तलक तो भूल जाते हम

अगर मिलते कदम तेरे, पता अपना बताते हम
उन्हें घर पे बुलाते और तुझको आजमाते हम

ghazal

हौले हौले मोम से गल जायेंगे
तुम जिस कदर चाहोगे हम ढल जायेंगे

आओ ढूँढें आग की परछाइयां
कच्चे रिश्ते ख़ुद ब ख़ुद जल जायेंगे

कौन सा वादा है अपना मौत से
तुम कहो रुक जाओ, तो कल जायेंगे

कर के देखो रास्तों पे बंदिशें
फिर बंदिशों के पाँव निकल जायेंगे

रेशा रेशा रात खुलती जायेगी
रफ्ता रफ्ता रस्सी के बल जायेंगे

Thursday, 23 April 2009

खाली घडे जैसा

वो बस
इक बूँद था
और मैं
किसी खाली घडे जैसा ..

मेरी बुनियाद में
मसलों की इंटें थीं लड़कपन से
उसे बचपन से ही महलों में
कुछ ज्यादा
थी दिलचस्पी,
मैं कंचों को जमीं पर खेलता था
उँगलियों से जब
वो बाहर
ताश के पत्ते सजा कर
दांव चलता था.........
बहुत ज्यादा बड़ा वो हो गया है
आजकल मुझसे
के मैं
अब बूँद हूँ
और वो
किसी खाली घडे जैसा .

सुलगी ..तो सुलगा कर देखेंगे

सुलगी ....
तो सुलगा कर देखेंगे
हम भी आग लगा कर देखेंगे

ज़ख्मों को सहला कर देखेंगे
लोहे को पिघला कर देखेंगे

सिस्टम से टकरा कर देखेंगे
हम भी दांव लगा कर देखेंगे
सुलगी........
........तो सुलगा कर देखेंगे

Wednesday, 15 April 2009

तब कहना

एक नमाजी
जब आवारा हो जाएगा तब कहना
जब घड़ियों में साढे बारह
हो जाएगा तब कहना
सूरज के सारे कारिंदे
जब कोड़े बरसाएंगे
धूप में थक कर जब वो बन्दा
सो जाएगा
तब कहना
मैं उस वक्त कहीं ए सी में
बैठे बैठे सुन लूँगा

तब कहना

गलोब्लैजेशन में गुलज़ार

रिंग
रिंग
रिंगा
रिंगा
रिंगा
रिंग
रिंग
रिंगा
रिंगा
रिंगा
और कुछ पन्ने जरा सा khadkhada कर रह गए
और कुछ अल्फाज़ थे
जो लड़खड़ा कर रह
रिंग
रिंग
रिंगा
रिंगा
रिंगा
रिंग
रिंग
रिंगा
रिंगा
रिंगा

Tuesday, 31 March 2009

अजीब दूरी है

आज इस रिहाई का
क्या करूंगा मैं आख़िर ,
कोई भी नहीं अपना
गैर भी नहीं कोई
एक अजीब दूरी है ..../
एक की रिहाई है
दस हजार गुम सुम हैं
बेजुबान होने के
सैकड़ों बहाने हैं /
कैसे कैदखाने हैं
जो हमें नहीं दिखते
उस मकान के पीछे /
कौन सी कहानी है
जो नहीं सुनी हमने
क्या हसीं वादे हैं
जिनको आजमाने से
टूटती हैं हड़तालें
क्या तलाश करती हैं
बस्तियां फसादों में
क्यूँ तमाम चेहरों पे
बेपनाह फुर्सत है
कौन अब सुने किसकी
कोई कुछ नहीं कहता
मैं जहाँ पे मेहमान हूँ
कोई शै नहीं रहता
आज इस रिहाई का
क्या करूंगा मैं आख़िर /
हम जिसे निभा लेंगे
वो ही दोस्ती होगी
बिन कहे सुने कुछ भी
चल रहा है अफ़साना
अब कोई भी
अजनबी सा
वाकया नहीं होता
अब कभी भी मिलने में
हादसा नहीं होता,
आजकल यूँ मिलते हैं
हम बिना जरूरत के
जैसे
ना भी मिलने पे
कुछ कमी नहीं शायद,
अब हमारी बेफिक्री
का ये कैसा आलम है
तुम भी कुछ नहीं कहते
मैं भी कुछ नहीं कहता
बिन कहे सुने कुछ भी
चल रहा है अफ़साना

Monday, 30 March 2009

कहाँ किसकी नज़र से लापता हूँ मैं खुदा जाने
खुदा जाने
हमारे दम पे आख़िर कौन रौशन है/
यकीनन ,
मैं भी कुछ अनजान हूँ
अपनी जरूरत से ,
यकीनन ,
तुम भी हो पुर्जे
मिलों में कारखानों में /
कोई तो है
कि जो
हम सब की मेहनत का जुआरी है /
कहाँ किस मोड़ पर
इस जिंदगी से
जूझते हैं हम
कहाँ किसके लिए कोई पहेली बूझते हैं हम/
ये सब बातें
खुदा जाने
के इनकी क्या हकीक़त है,
के बस हम जानते हैं के
बहुत ग़मगीन है दुनिया ,
के इस दुनिया की सारी मुश्किलों के हल
खुदा जाने

तूफ़ान के रहते हुए

तुम जहाँ पर रुक गए थे

वो जगह चलने की थी

तुम जहाँ पर बुझ गए थे

वो सुबह जलने की थी

थक गए थे तुम जहाँ

थकना नहीं था उस जगह

उस जगह

फिर से उठानी थी

नज़र में रौशनी

देखना था के उजाला

आपकी पहलू में है

तुम जरा सा थम गए थे देख कर तूफ़ान को

के और कुछ नीची पड़ेंगी रास्तों की अड़चनें

और कुछ समतल बनेगा

इस समंदर का सफर

पर हमेशा खौफ ही है

इस समंदर का,

कि जो

पार करना है तुम्हें

तूफ़ान के रहते हुए,

तूफ़ान में ही ये समंदर

सब हुनर देगा तुम्हें,

तुम जहाँ पर रुक गए हो

वो जगह चलने की है

Friday, 27 March 2009

Tuesday, 10 February 2009

तेरे बदन पे तिल

और जब जहन में आ गए कई सवाल
तो हमने कहा
के सुनो ......
कतार में रहो ,
अच्छे भले हो आदमी
आँखें खुली रखो ,
यूँ खामख्वाह के मत किसी खुमार में रहो ...............
तेरे बदन पे तिल कहाँ हैं
जानते हैं हम
अब तुम
हमारे काले कारोबार में रहो
सारे गुनाह खिल के तो गुलाब हो गए
अब
आज से
काँटों के इख्तियार में रहो

Sunday, 8 February 2009

धूम मचा कर चले गए

काफी देर तक्क़ल्लुफ़ में वो

चुप बैठे

पर आख़िर में

सन्नाटे से बाहर आए

धूम मचा कर चले गए/

चिट्ठी विट्ठी लिखते रहना

इतना ही बोला उनसे

दीवानों को

क्या सूझी

वो सब लौटा कर चले गए।

Saturday, 7 February 2009

धूम मचा कर चले गए

पहले तो सारा अफसाना

बतलाने बैठे

वो फिर

बात जबां तक आते आते

बात बना कर चले गए।

ऐसे चाँद सवालों पर वो

आँख नचा कर चले गए

चुप थे

फिर भी अनजाने में

शोर मचा कर चले गए

अंगडाई से पहले उनका

थोड़ा सा इठला लेना ,

उनको क्या मालूम

कहाँ वो

आग लगा कर चले गए।

सीधे साधे सब लम्हों को

वो

उलझा कर चले गए

आए तो कंधा देने पर जाने क्या मस्ती सूझी,

ढोल नगाडे लेकर बैठे

हंस कर गाकर चले गए

पहले थोडी आँख तरेरी

फिर झगडे......

मुस्काए फिर

फिर थोड़ा हौले से चौंके

फिर घबरा कर चले गए

Friday, 6 February 2009

के जितना ढूंढते हो तुम

के जितना ढूँढते हो तुम

उतना गुम नहीं हूँ मैं

बस कुछ नए हिस्सों में थोड़ा

बंट गया हूँ अब

अब भी रखता हूँ

नए वादे हथेली पे

अब भी नेजे पे सवालों के संभालता हूँ

अब ही तनहा चाँदनी में

खूब जलता हूँ

रोज जब तुम दस सवालों को उठाते हो

रोज मैं कुछ ख्वाब नन्हें

ढूंढ लाता हूँ

तुम जिन्हें मुश्किल बता कर रूठ जाते हो

मैं सौ दफा उन मुश्किलों में

सर उठाता हूँ

यहीं अक्सर

कहीं कुछ बीनता चुनता हुआ

देखो

यहीं मिल जाऊंगा मैं

जिंदगी बुनता हुआ देखो

जरा सा गौर से देखो

उफक के पास ही हूँ मैं

के जितना ढूंढते हो तुम

उतना गुम नहीं हूँ मैं

Thursday, 5 February 2009

अपनी चुप्पी को सजा कर आँख में

मेरी चुप्पी का सिला देता है वो

कोई चर्चा अब नहीं होती यहाँ

वस्ल में अब

आजमाइश चल रही है

इन दिनों

गहरी उदासी में हूँ मैं

अपनी कमजोरी छुपाने के लिए

इक वजह

वो ढूंढता रहता है अब

मेरी गलती को भुनाने के लिए

अब हमारे बीच

बस एक जंग है

जिसका के ऐलान बाकी है अभी

Wednesday, 4 February 2009

अधफटे बम

फर्श पर बिछी हुई है छत मकान की
पसरे हुए हैं हम
किसी उबाल की तरह ,
नए सवाल,
उठ गए थे ....
बीच बहस में
जिनका कि
लिस्ट में कहीं पे ज़िक्र नहीं था/
गणित के ऐसे खेल
जिनका कोई हल नहीं
ऐसे अजीब मेल
जिनका कोई कल नहीं
जैसे कि
सामने हों
तेरे घर की चौखटें
और रास्तों में
बम पड़े हुए हों अधफटे ;
जैसे कि
चीख कर उठें हों
एक साथ फिर
हम गिर पड़े हों
एक
निहत्थों की भीड़ में ,
पसरे हुए हों हम
किसी उबाल की तरह ....

धूप

नदी

रेशम

खुशबू

चिडिया

और फिर..........

गूह

मूत

कोढी

बलगम

किलबिल

किलबिल

दुनिया रंग रंगीली

देखो

दुनिया रंग रंगीली ........

अगर हम चीख ना पाए

तो आओ गा के देखेंगे/

कहानी तो पढ़ी जानी है

पन्ना जिस तरह पलटो........

के हर पन्ना पलट कर देखने की क्या जरूरत है ......!

ये पन्नों को

पलट कर देखने के बाद तय होगा।

Sunday, 1 February 2009

बीच नदी में साँस नहीं छोड़ा करते

सूरज का पहला अफसाना डूब रहा था
अफसानों में
रौशन था मैं
चम-चम , चम -चम
एक वजह थी
दाँव लगा कर हम बैठे थे
एक वजह
मैं पानी को घोल रहा था
उन सब वजहों की रंगीनी गुम हो जाए
इस से पहले
मसलों को सुलझाना होगा
वो शफ्फाक अँधेरा तारी हो जाए
इस से पहले डॉट लगाना है अम्बर पे;
साँस उखड जाने से पहले खुल जाओ .....
दम है,
शायद
ये घबरा कर घुट जाए
अब भी सारे काम वहीँ हैं जस के तस
अब भी अपने हथियारों पे जीना है
अब भी टकराकर जाना है लहरों से
बीच नदी में साँस नहीं छोड़ा करते
थक कर अपनी राह नहीं मोड़ा करते
गर
जिन्दा
उस पार नदी के जाना है ..............

Friday, 30 January 2009

फॉर्म में ugly बहुत है face मेरा

इस वजह से फंस गया है केस मेरा

आदमी legal दिखूं कैसे

बताओ तुम !

नस्ल इक मुद्दा है UN के लिए

मैं जरा सा और ग्लोबल हो रहा हूँ ...........

इंडियन हूँ ,

या कोई नाइजीरियन हूँ ,

दोस्त कहता है मुझे

हल्का सा हंस के ....

नस्लवादी टिप्पणी का खामियाजा ,

और भी लोगों ने दुनिया में भरे हैं

खेल में भी ,

और कभी खिलवाड़ में भी,....

दोस्त भी भरता रहेगा खामियाजा .

औसतन लोगों से कम सुंदर हूँ मैं ,

जाओ ............

और जाकर बताओ अन्ना को (kofi annaan)

चुप करा देना कोई मसला नहीं है

रंग चेहरे का बहुत कुछ बोलता है

दूरिआं कितनीं हैं

और किस हद तलक .....

दरमियान ये कौन है हर शख्श के

के आदमी के देखने का कायदा

आज-कल भी

कई सदी पहले सा है.

वक्त

आज कल मेरे शहर ने जो बना रक्खा है मुझको,

दिख रहा होगा तुम्हें

पर वो

मेरा चेहरा नहीं है ,

मैं यहाँ उस वक्त से हूँ

जब यहाँ कोई नहीं था,

एक हैरत थी जो बढती जा रही थी दिन ब दिन

एक फुर्सत थी जो घटती आ रही थी हर तरफ़,

मेरेआगे ही तमाशे नस्ल के पैदा हुए,

मेरी आंखों में हजारों तीर हैं उस जंग के

जो लड़ी सबने मगर कोई नहीं जिन्दा रहा,

मैं यहाँ उस वक्त से हूँ

जब ज़मीं सबकी रही

मेरे आगे सैकड़ों फसलें उगीं और कट गयीं

मेरे आगे सैकड़ों नस्लें उगीं और बंट गयीं

मैंने अपनी उम्र का वो दौर देखा है यहाँ

जिसमें जर्रे से उठा है ये शहर

और एक दिन

आसमान छू के गिरा है

पत्थरों के फर्श पे

असल बात

ये जरूरतों की जो फेहरिस्त

दिखाते हो मुझे

इनमें क्या गैर जरूरी है, पता है हमको....

हमने खोले हैं सवालों को गठरिओं की तरह

हमने बस धूल हटा दी है असल बातों से..................

ये जो फैसले होते हैं अदालत में ,

ये जो डिग्रीयां बिकती हैं इश्तेहारों ,

ये जो अल्फाज़ चमकते हैं तितलिओं की तरह

ये जो की रोज छपा करते हैं अखबारों में,

ये सब पुर्जे हैं हवाओं में उड़ने के लिए

के ये पत्ते हैं फ़क़त छुपने छुपाने के लिए

के असल बात कहीं और ही ढकी है अभी ...

हमने जवाबों को तलाशा नहीं है और कहीं

हमने अल्फाज तलाशें हैं

नए मानी में;

हमने बस धूल हटा दी है असल बातों से

हमने बस चाँद हटाया है

हसीं रातों से......

Saturday, 17 January 2009

तरीका

अगर सीधा पहुंचना हो तो फ़िर उलटी तरफ़ निकलो
तुम्हें पूरा जहाँ मिल जाएगा सुनने समझने को

लंगी

जिंदगी की गाडी चुपचाप जा रही थी
और हम
ज़रा सा उसको लंगी फंसा रहे थे .........
हम आजमा रहे थे .......
ऊंची उड़ान वाली इक जोरआजमाइश